मेरे एक मित्र हैं जो हमेशा अपनी योजनाओं के बारे में बताते हैं, लेकिन जिस तेजी से उनकी कल्पनाएं दौड़ती हैं उतनी तेजी से उनका शरीर नहीं दौड़ता। उनका इरादा गलत नहीं होता, लेकिन सिर्फ इरादा सही होने से काम नहीं हो जाता। उसके लिए कड़ी मेहनत करनी होती है। होता यह है कि सिर्फ बातचीत करके ही वे संतुष्ट हो जाते हैं। यह मानसिक संतुष्टि व्यक्ति को मोटिवेट नहीं होने देती। धीरे-धीरे उनके दोस्त मजाक उड़ाने लगे और उनकी बातों पर यकीन करना छोड़ दिया।
ऐसा क्यों होता है? क्या इसके पीछे कोई मानसिक कारण है? न्यूरोलॉजिकल साइकोलोजी के प्रोफेसर मनुष्य की इस आदत का अनेक वर्षों से आकलन कर रहे थे। उनकी खोज का निष्कर्ष है कि “आपने लोगों को अपने इरादों के बारे में बता दिया तो आपको समय से पहले कुछ पा लेने का अहसास होता है। मस्तिष्क में कुछ प्रतीक चिन्ह होते हैं जो खुद के ही सामने आपकी अपनी छवि बनाते हैं। आपके कृत्य और बातचीत दोनों से ये चिन्ह बनते हैं। अगर बातचीत से ही मस्तिष्क में ये चिन्ह बन गए तो वह उन्हें कार्यन्वित करने के लिए शरीर को प्रेरित नहीं करता। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। आपके पास ऊर्जा का स्त्रोत होता है। वह या तो आपके शारीरिक मेहनत से प्रकट होगा या फिर मस्तिष्क के भीतर जो कल्पना जगाने वाला केंद्र है वहां जाकर दिवा स्वप्न में विलीन हो जाएगा। शरीर तक यह ऊर्जा उतर नहीं पाएगी।
इसका सामाजिक पहलू भी है। अपनी योजनाओं के बारे में बताकर आप उनकी प्रशंसा तो पा लेंगे, लेकिन साथ ही लोगों की ईर्ष्या का शिकार बनेंगे। लोगों में बहुत सी विध्वंसात्मक ऊर्जा होती है, वे आपकी योजना में बाधा डालने की कोशिश करेंगे। तो क्या अपनी योजना को राज़ रखना है? नहीं, एक लक्ष्य निर्धारित कर लें, जो लोग अपना लक्ष्य पाने में सफल रहे हैं, उनसे सलाह मशविरा करें और पूरी तरह काम पर फोकस करें। अपने हृदय को अधिक महत्व दें क्योंकि सफलता के गुर वह जानता है। मौन और शांत रहकर, ध्यानपूर्वक, दूरदर्शिता के साथ एक-एक कदम उठाएं। अपने यश को बोलने दें, मन को नहीं।